Wednesday, July 23, 2008

सरकार की जीत या लोकतंत्र की हार?


संसद मे कल, यानी कि २२ जुलाई, २००८ को सरकार द्वारा विश्वास मत हासिल कर लिया गया। जाहिराना तौर पर यह वाम दलों की हठ-धर्मिता की हार है। लेकिन अचानक से एक वाकया ऐसा हुआ कि देश मे लोकतंत्र को शर्मसार होना पडा।



हुआ यूँ कि मतदान से कुछ घंटे पहले ही भाजपा के सांसद एक थैले मे करोड़ रुपये लेकर आए और सदन को यह बताया कि यह रूपया उन्हें सत्ता-पक्ष के सहयोगी द्वारा मतदान के समय पर अनुपस्थित रहने के लिए दिया गया अग्रिम मूल्य है। चूँकि विगत एक सप्ताह से विपक्ष सरकार पर
लगातार यह आरोप लगा रहा था कि उनके सांसदों को खरीदने की कोशिश की जा रही है, और सत्ता पक्ष बार बार साक्ष्य की मांग कर रहा था। ऐसे मे पूरे सदन के सामने, बल्कि पूरे देश के सामने जो यह साक्ष्य रखा गया है, उसने हमारे देश की इज्ज़त को मटिया मेट करना है, यह तय है।



यदि उन सांसदों को वास्तव मे ही यह धनराशि सत्ता पक्ष या उनके सहयोगी दलों के द्वारा दी गई है तो इस सरकार के लिए यह एक बार फिर से उसी प्रकरण की तरह का काला धब्बा साबित होगा जैसे कि पूर्व मे भी नरसिंह राव की सरकार ने सांसदों को खरीद कर अपने मुख-मंडल पर कालिख पोती थी। किंतु यदि यह कार्य उन सांसदों द्वारा स्वयं का रूपया लाकर किया गया है तो मेरे विचार मे इससे घटिया कार्य और कोई नही हो सकता है।



मजे की बात यह रही कि सरकार द्वारा अपने पक्ष मे जरूरी आंकडे जुटा लेने के बाद मे सुश्री मायावती का बयान आता है कि तो संप्रग और ही राजग यह चाहता है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर एक दलित बैठे। अरे भाई! मेरा मतलब है कि बहन जी! यहाँ सारी कवायद चल रही थी परमाणु करार के मुद्दे पर सरकार द्वारा समर्थन जुटाने की, और आप हैं कि अपने को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए इतनी उतावली हो रही हैं। और जहाँ तक दलित को प्रधानमंत्री बनाने की बात है तो मेरे विचार मे हमारे देश मे जब दलित राष्ट्रपति तक बन चुके हैं तो प्रधानमंत्री बनवाने मे किसी को भला क्यूँ दिक्कत होगी? लेकिन उसके लिए आपकी छवि भी तो अच्छी होनी चाहिए, क्यूंकि आप मुख्यमंत्री बनकर अपने विरोधी दलों को खुले-आम गालियाँ देती हैं तो कौन भला मानुष विदेशों से अपने संपर्क ख़राब करने के लिए आपको प्रधानमंत्री बनाना चाहेगा।



खैर, कुल मिला कर सरकार ने विपक्ष को तोड़ कर अपने पक्ष मे जरूरी संख्या बल तो दर्शा दिया है, किंतु असली अग्नि परीक्षा जो कि निकट भविष्य मे जनता के दरबार मे होने वाले चुनाव मे होगी, उसमे इस सरकार को और इस सरकार को समर्थन देने वालों को नंगे पैर चलना होगा।

Wednesday, July 2, 2008

एक प्रतिष्ठित चिकित्सक की सेवा-निवृत्ति


कल, यानि कि जुलाई, २००८ को डॉ पी वेणुगोपाल की देश के प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान एम्स के निदेशक पद से सेवानिवृत्ति हो गई एक हृदय-चिकित्सक के रूप मे अपने कार्यकाल मे उन्होंने देश का नाम रोशन किया है यह बात दीगर है कि इसके लिए उन्हें कई बार काँटों भरी राह पर भी चलना पड़ा



केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अम्बुमणि रामदास से आरक्षण के मुद्दे पर बढ़ा उनका टकराव इस हद तक पहुँच गया था कि सरकार ने उनको निदेशक पद से हटाने के लिए नए कानून तक बना डाले लेकिन अंत मे जीत सत्य की ही हुई जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के उस कानून को गैर-कानूनी करार दिया और डॉ पी वेणुगोपाल की निदेशक पद पर दुबारा नियुक्ति हुई



इस सारे मामले मे यह देखना दिलचस्प रहा कि किस प्रकार से पूरा चिकित्सक समूह अपने निदेशक के साथ खड़ा नज़र आया पता नही क्यूँ स्वास्थ्य मंत्री ने यह सब देखते और जानते हुए भी सारी लड़ाई को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया और अपने साथ साथ केन्द्र सरकार को भी एक गैर-कानूनी कानून बनाने मे अपना भागीदार बना दिया



डॉ पी वेणुगोपाल ने देश को अपनी सेवाएं ऐसे समय मे दी जब उनके सामने अपना चिकित्सालय खोलने जैसे कई और विकल्प थे उनके साथ के चिकित्सक जिन्होंने विदेशों मे चिकित्सा अभ्यास करने को वरीयता दी, आज धनाढ्य वर्ग मे शामिल हैं, फिर भी डॉ पी वेणुगोपाल ने अपने देश मे ही रहकर यहाँ की जनता की मदद करने को हमेशा ही अपनी प्राथमिकता मे रखा आज वे भले ही एम्स से सेवा-निवृत्त हो गए हैं, लेकिन उनका योगदान कभी नही भुलाया जा सकताऐसे महान व्यक्ति को मैं शत-शत नमन करता हूँ।

Friday, June 20, 2008

परमाणु करार की आफत


मास्टरजी: बच्चों, ये है हमारी सरकार की बनावट। अरे मनमोहन! तुम्हारी सरकार तो डावांडोल लग रही है?
मनमोहन: क्यूँ हो मास्टरजी? मैं रोज रोज वाम-दलों से पंगे लेना जो पसंद करता हूँ।



ये कोई चुटकुला नही, इस देश की वर्तमान स्थिति है। जहाँ हमारे देश की सरकार अमेरिका के साथ परमाणु करार करने पर अडिग है, सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वाम-दल इस करार के पूर्णतया विरोध मे हैं। कुछ दिन पहले पढने को मिला था कि अब कांग्रेस भाजपा से इस करार को अमली जामा पहनाने के लिए समर्थन मांग रही है। सोचने की बात है कि जब सरकार इस करार पर शुरू मे हस्ताक्षर कर रही थी, तब उस समय उसने विपक्ष को विश्वास मे लेने की जहमत नही उठाई। अब जब करार के लिए नौबत गले गले गई है, तब उसे सबकी याद रही है।



वाम-दलों की तो बात ही क्या करनी, उन्हें तो हर बात का ही विरोध करने की आदत है, बल्कि यूँ कहा जाए कि उनकी राजनीति ही पूर्ण रूप से विरोध पर टिकी है। अमेरिका के धुर-विरोधी माने जाने वाले वाम-दलों ने सरकार को चेतावनी दी हुई है कि आप करार पर एक कदम आगे बढाओ, हम आपके पैर काटने को तैयार हैं। लेकिन इस पूरे प्रकरण पर गौर किया जाए तो ख़ुद संप्रग सरकार कितनी विवेकहीन है, ये पता चलता है। वैसे तो विदेश से जुड़े मसलों पर पूरी संसद को विश्वास मे लेना जरूरी था, वो तो नही ही किया, पर कम से कम जिनके समर्थन से सरकार चला रहे हो, उन्हें तो पूरी बात पता चलनी चाहिए थी। इस पूरे प्रकरण से हमारे इस महान देश की साख को बट्टा लग रहा है।



अब कांग्रेस का कहना है कि चाहे जो हो जाए, वो इस करार को कर के ही रहेंगे, इसके लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी का समर्थन हासिल करने की कवायद भी शुरू कर दी है। समझ मे ये नही आता कि जब इस देश मे महंगाई अपने चरम पर विराजमान हो रही है, इस सरकार को आख़िर परमाणु करार करने मे इतनी जल्दबाजी क्यूँ है? आज महंगाई अपने १३ वर्षों के चरम पर पहुँच गयी। आम आदमी के नाम पर केन्द्र मे पहुँची कांग्रेस-नीत सरकार आम आदमी की तरफ़ ही ध्यान नही दे रही है। किसानों को क़र्ज़-माफ़ी के नाम पर दिया गया धोखा क्या कम था? और तो और, अभी तक क़र्ज़-माफी के लिए आवंटित धन का निस्तारण कहाँ से किया जायेगा, यह प्रश्न भी अनुत्तरितहै। जाहिर है, कि उन्होंने सोच लिया है कि चुनावी वर्ष मे कुछ लोक-लुभावन घोषणाएं कर लो, और आर्थिक बोझ आने वाली सरकार के कन्धों पर डाल दो।



जहाँ अपने बजट मे वित्त मंत्री ने ३-४ सप्ताह मे ही महंगाई पर काबू करने की बात कही थी, वहीं अब वो सीना ठोंक कर कह रहे हैं कि इस महंगाई को बस मे करना किसी भी सरकार के बूते की बात नही थी। मेरा तो सिर्फ़ इतना ही कहना है कि जब आप कोई काम कर नही सकते तो उसे शुरू मे ही बोलने की जरूरत क्या थी। मैं सिर्फ़ इतना और कहना चाहूँगा कि जब सरकारों के बूते मे कुछ नही है तो क्यूँ हम इस देश को भगवान् भरोसे ही चलने दें।

Tuesday, April 29, 2008

फ़टाफ़ट क्रिकेट



एक ज़माना था, हम लोग छोटे छोटे बच्चे हुआ करते थे उस समय। दूरदर्शन पर रामायण का प्रसारण किया जाता था। सड़कें ऐसे लगती थीं कि जैसे इस शहर मे कोई रहता ही नही है। सभी लोग अपने अपने घरों मे, या जिनके घरों मे टीवी नही था, वो लोग पडोसियों के घरों मे बैठ के रामायण देखा करते थे।


कुछ कुछ यही मंजर अब फिर से देखने को मिलता है। कारण है क्रिकेट का नया स्वरूप। क्रिकेट जो कि पहले ५ दिनों का टेस्ट होता था, एक-दिवसीय बनने के बाद से काफ़ी प्रसिद्ध हुआ था। लेकिन अभी हाल मे ही क्रिकेट ने टी-२० के रूप मे अपना नया अवतार लिया है। छोटा होने के कारण इसमे आक्रामकता भी काफ़ी है और मनोरंजन तो बस ऐसा कि पूछिए मत। सारे अभिनेता, अभिनेत्रियाँ और गायक, खेल से पहले ही दर्शकों का भरपूर मनोरंजन कर देते हैं। और अगर खेल मे किसी खिलाडी ने चौका, छक्का मारा या कोई खिलाड़ी आउट किया तो फिर लोगों की नज़रें मैदान पर कम और कम कपडों मे नाच रही लड़कियों पर ज्यादा होती है। यानि कि पूरा पैसा वसूल



क्रिकेट के इस नए स्वरूप से अगर किसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तो वो हैं घर की स्त्रियाँ। पहले तो उन्होंने सोचा कि चलो अच्छा हुआ खेल का समय कम हो गया तो बाकी समय मे अपने रोने धोने के धारावाहिक देख सकेंगे, लेकिन ये क्या, यहाँ तो एक खेल खत्म होता है, दूसरा शुरू होता है। और प्रसारण का समय भी उनके नाटक के समय पर ही। रिमोट भी नही छीन सकते। अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी.......



कुछ भी कहिये, लेकिन इस फ़टाफ़ट क्रिकेट ने एक बार फिर से क्रिकेट की तरफ़ भीड़ को आकर्षित किया है। और जिस तरह से इसमे पैसा पानी की तरह बह रहा है, हर दंपत्ति चाह रहा होगा कि उसका लड़का भी बड़ा होकर खेल मे पैसा कमाए। ये उक्ति अब कहीं नही सुनाई देती कि "पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे बनोगे ख़राब।" वैसे भी आजकल किसी को नवाब बोल दो तो मारने को दौड़ पड़ेगा क्यूंकि नवाबों के शौक ऐसे ऐसे थे कि कोई भी सभ्य इंसान नवाब कहलाना पसंद नही करेगा.

Sunday, April 13, 2008

तिब्बत मे सांस्कृतिक संहार


ओलंपिक खेलों की शुरुआत मे अब कुछ गिनती के ही दिन बचे हैं। यह तो सर्व-विदित ही है कि इस बार के ओलंपिक खेल चीन मे हो रहे हैं। फिर इस समय मे खेलों को छोड़कर तिब्बत की तरफ़ सबका ध्यान क्यों आकर्षित हुआ है? इसका कारण है चीन द्वारा तिब्बत मे किया गया नर-संहार। अपुष्ट गैर-सरकारी सूत्रों की माने तो कम से कम १५० तिब्बतियों को इस दमनचक्र मे मौत के घाट उतार दिया गया. तिब्बतवासी अगर अपनी स्वायत्तता चाहते हैं तो उनके ऐसा चाहने मे बुरा ही क्या है? वैसे भी तिब्बत कभी भी चीन का अभिन्न हिस्सा नही रहा है। लेकिन चीन अपनी गलती स्वीकारने के बजाय दलाई लामा के ख़िलाफ़ अनर्गल बयानबाजी कर रहा है। यह बात सर्वज्ञात है कि चीन दलाई लामा से वार्ता शुरू करने का कभी इच्छुक नही रहा, इसलिए आज की तारीख मे उसे ओलंपिक जैसे खेलों के विरोध का दंश झेलना पड़ रहा है। इस विरोध के बावजूद भी चीन ओलंपिक मशाल को तिब्बत के रास्ते ले जाने के लिए अड़ा हुआ है, और अपनी इस जिद के लिए वह नर-संहार करने से भी बाज़ नही रहा है.



सबसे अधिक तिब्बती शरणार्थी
भारतवर्ष मे रहते हैं, ऐसे मे भारत सरकार को उनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी चाहिए थी, लेकिन कूटनीतिक कारणों से वह ऐसा नही कर सकती क्योंकि चीन के साथ मधुर सम्बन्ध बनाना भी इस समय देश की आवश्यकता है। लेकिन जरूरत है पश्चिम बंगाल सरकार पर ध्यान देने की। हाल ही मे वहाँ की वामपंथी सरकार ने तिब्बतियों को रैली करने की अनुमति देने से इनकार करके अपना चीन के प्रति झुकाव जगजाहिर किया है। भारत सरकार को चाहिए कि वह अपनी विदेश नीति को राज्य सरकारों के साथ साझा करे, अन्यथा बाद मे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हमारा देश हँसी का पात्र बनकर रह जाएगा।



वैसे भी जिस प्रकार से वाम-दलों ने भारत सरकार की परवाह किए बिना ही तिब्बत को चीन का हिस्सा बताया है, उससे इनकी हिमाकत का ही पता चलता है। वाम दल विगत वर्षों से बिना जिम्मेदारी के ही सत्ता-सुख भोग रहे हैं। हर बात पर विरोध करना इनकी नैतिक जिम्मेदारी होती है। चाहे वह अमेरिका के साथ का असैन्य परमाणु करार हो या महंगाई का मुद्दा। हर बात पर ये संसद के अन्दर और बाहर चिल्लाते तो जरूर हैं पर कभी भी ऐसा प्रतीत नही हुआ कि इन्होने उसके लिए कुछ करना चाहा हो।



तिब्बत मे चीन द्वारा विदेशी पर्यवेक्षकों/ पत्रकारों पर पाबंदी लगाना वैश्विक समुदाय को चीन के विरोध मे ही खडा करेगा. चीन एक बड़ी शक्ति के रूप मे उभरा जरूर है, किंतु जब तक वह मानवीय मूल्यों, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और अन्य धर्मों का सम्मान करना नही सीखेगा, उसे सर्व-स्वीकारोक्ति नही मिलेगी और ओलंपिक खेलों की मशाल ऐसे ही बुझती रहेगी.

Friday, April 11, 2008

आरक्षण को स्वीकृति

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आखिरकार उच्च शिक्षण संस्थानों मे २७ प्रतिशत आरक्षण को स्वीकृति दे दी गयी। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नही है कि माननीय न्यायालय द्वारा कोई ग़लत निर्णय दिया गया है। न्यायपालिका का कार्य है यह देखना कि सरकार द्वारा जो कार्य किया गया है वह संविधान के दायरे मे किया गया है या नही। न्यायालय की मजबूरी इस निर्णय मे साफ झलकती है जिसमे कि उन्होंने सरकार से प्रार्थना करी है कि इस आरक्षण मे उच्च वर्ग को शामिल ना किया जाए।


वैसे भी देखा जाए तो इस सरकार की इच्छा आरक्षण को लागू करने की ही रही है ना कि उस वर्ग के लोगों को ऊपर उठाने की। वोट की राजनीति के लिए ये लोग चाहते हैं कि उस वर्ग का विकास हो क्यूंकि एक बार जब वो लोग ऊपर उठ जायेंगे तो इन राजनेताओं पर आश्रित रहने की आवश्यकता नही रहेगी।



जहाँ तक मेरा मानना है, यदि आरक्षण देना ही था तो इसके लिए किसी जाति-विशेष या समुदाय-विशेष को ही चुनने की क्या आवश्यकता है? उत्थान की ही बात करनी है तो उस तबके की करिये जो कि वास्तव मे गरीब है, जिसके पास सुख-सुविधा नही है, जिसे सरकारी विद्यालय के अध्यापक के अतिरिक्त कोई ट्यूशन पढने के लिए पैसे नही हैं। कुल मिलाकर इस आरक्षण से अमीर और अमीर हो जायेगा, गरीब गरीब ही रहेगा.

Saturday, April 5, 2008

महाराष्ट्र की चिंता


मनसे..... यानी कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना. नाम कभी पहले सुना नही था। चलो अब सुन लिया। अपना नाम सुनाने का सबसे आसान तरीका है, १०-१२ गुंडे इकठ्ठा करो, - लोगों को पीटो और झंडे लेकर नारे लगाओ। प्रेस, मीडिया को तो इन सब चीजों की तलाश ही रहती है। आख़िर हो भी क्यों , उन्हें २४ घंटे का समाचार चैनल भी तो चलाना है। अब उसमे २४ घंटे विज्ञापन तो नही दे सकते हैं न। बच्चे भी आजकल गड्ढे मे नही गिर रहे हैं, जो कि वो लोग एक मुहिम चलायें कि अब फलां को बचाना है। भई, जो भी हो, लेकिन मानना पड़ेगा राज ठाकरे को। जिस बन्दे को कल तक कोई जानता नही था, आज सब उसके अगले संवाददाता सम्मेलन का इंतज़ार कर रहे हैं।


खैर, प्रसिद्धि तो अपनी जगह है, लेकिन वास्तव मे जो कुछ भी महाराष्ट्र मे हो रहा है, क्या ये सही है? क्या भारतवर्ष मे रहने वाले हर बन्दे को अब दूसरे प्रांत मे जाने के लिए, वहाँ काम करने के लिए, किसी राज ठाकरे से इजाज़त लेनी होगी? मनसे के कार्यकर्ताओं ने जिस तरह उत्तर-भारतीयों के साथ बर्ताव किया है, उन्हें जबरदस्ती महाराष्ट्र से निकलने को कहा है, यह सर्वथा भारतीय संविधान के विरुद्ध है।


दिलचस्प तथ्य यह है कि इस सारे प्रकरण पर भारत सरकार की चुप्पी भी उतनी ही गैर-जिम्मेदाराना है जितनी कि स्वयं राज ठाकरे की बयानबाजी। ख़ुद महाराष्ट्र की राज्य सरकार इस प्रकरण को समय रहते संभाल सकती थी, अगर उसने अपने सहयोगी दल के नेता को चेतावनी दी होती। लेकिन भइया, ये जो कुर्सी की राजनीति है, इसमे बाप अपने बेटे को भी हड़काने की हिम्मत नही करता है, फिर ये तो कोई सगे भी नही हैं।


खैर, मुझ मे भी हिम्मत नही है कि मैं जा के राज ठाकरे की मांद मे उसी को हड़का के आऊँ। इसलिए मेरा काम तो यहीं से ही हो गया। मुझे जितना हड़काना था, यहीं से कर दिया। अब बाकी भारत सरकार जाने या राज ठाकरे सरकार.