Friday, August 7, 2015

शोले के सिक्के - संसद के पक्ष और विपक्ष

                     फिल्म शोले आपने जरुर देखी होगी। उसमे हीरो के पास एक अनोखा सिक्का था, जिसे उछाल कर वो अपनी और अपने साथ वालों की किस्मत तय किया करता था। इस सिक्के का अनोखापन ये था कि सिर्फ हीरो इस बात को जानता था कि सिक्का दोनों तरफ से एक जैसा ही है। इसलिए वो जैसा चाहता था, वही होता था।


                       जब से राजनीति समझनी शुरू करी थी, तब से देखता आया हूँ कि देश की संसद में पक्ष और विपक्ष कई मुद्दों पर आपस में लड़ते भिड़ते रहते हैं। फिर 5 साल के लम्बे इंतज़ार के बाद नए चुनाव होते देखा और पक्ष को विपक्ष में और विपक्ष को पक्ष में बदलते देखा। सोचा कि चलो अब जिस मुद्दे पर विपक्ष में बैठे लोग तन मन धन से लड़ रहे थे, अब वो मुद्दा उनके सत्ता में आने पर पर मूर्तरूप पायेगा। पर "ढिच्क्याऊँ" की एक आवाज के साथ गाना बजना शुरू होता है - 'गोली मार भेजे में'। ये क्या हुआ, कल तक विपक्ष में रहने वाली पार्टी जिस मुद्दे पर जी जान लगा रही थी, आज संसद के गलियारे में उस तरफ बैठते ही पलट गयी? ये क्या हुआ? कैसे हुआ? और हाँ, कल का सत्तापक्ष आज विपक्ष बनते ही उसी तरह का हंगामा करने लगा जिसके लिए वो कल तक पूर्व विपक्ष को कोसता रहता था।


                             खैर! धीरे धीरे समझ में आने लगा कि ये सब परंपरागत राजनीतिक पार्टियां कुछ और नहीं है, सिर्फ चन्द बड़े छद्म व्यापारियों के हाथ का खिलौना मात्र हैं। जनता को धोके में रखने के लिए विपक्ष में बैठी पार्टी किसी मुद्दे पर हंगामा जरूर करती है, लेकिन सत्ता मिलते ही वो अपने आराध्य छद्म व्यापारी के हाथ का खिलौना मात्र रह जाते हैं और फिर 'हुइए वही जो अम्बानी* रचि राखा'।


                        आज भी देश की संसद उसी ढर्रे पर चल रही है। सत्ता-पक्ष के मंत्रीगण करचोरी के मामले में भगोड़े का साथ दे रहे हैं, बलात्कारी लोग मंत्री बन रहे हैं और विपक्ष इन्ही मुद्दों पर संसद में हंगामा कर रहा है। इस्तीफे की मांग पर संसद आज भी ठप्प है। कल तक जो विपक्ष में रहते हुए हर दूसरे दिन प्रेस कांफ्रेंस कर के मंत्रियों का इस्तीफ़ा माँगा करते थे, आज वो खुद मंत्री बने हुए हैं और विपक्ष की मांग पर प्रेस कांफ्रेंस करके बता रहे हैं कि इस्तीफ़ा नहीं देंगे।


                        तो भाई! सीधी सी बात तो ये समझ में आई है कि वर्षों से जो पार्टियां एक बार सत्ता पक्ष के इस ओर दिखती हैं और दूसरी बार उस ओर, जब तक ये दोनों ही तरह की पार्टियां संसद से बाहर नहीं कर दी जातीं इनका ये खेल यूँ ही चलता रहेगा। ये हर बार जनता के सामने चुनावी सिक्का फेंकते रहेंगे लेकिन हकीकत में इस सिक्के के दोनों पहलु एक समान ही रहेंगे।

                         जरुरत है, तो सिक्का बदलने की।



*यहाँ अम्बानी एक प्रतीक मात्र हैं (ऐसे मिलते जुलते नाम वाले और भी हैं)।

Thursday, August 6, 2015

प्रधानमंत्री जी, आप देश चला रहे हैं, कोई आर एस एस की शाखा नहीं

माननीय प्रधानमंत्री जी,
        आज आपके नेतृत्व में देश आगे बढ़ रहा है लेकिन लग तो ऐसा ही रहा है कि जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है वहां पर सामने आपातकाल बाहें फैलाए खड़ा है।  शायद इस पत्र के माध्यम से मैं आप तक कुछ मुद्दे पहुंचा सकूँ जिनकी वजह से आज देश को ऐसा प्रतीत हो रहा है।


        वर्षों के बाद ऐसा हुआ था कि देश ने किसी नेता पर भरोसा कर के पूर्ण बहुमत देकर देश का नेतृत्व करने का सौभाग्य आपको दिया। आपने देश को बहुत उम्मीदें भी दीं थी। आपने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए अपने कार्यों का प्रचार-प्रसार जिस प्रकार से किया और उसके बाद अपनी चुनावी जनसभाओं में भाषण देने की अपनी कला का बखूबी प्रयोग करते हुए जनता को जिस प्रकार से 'सोने की चिड़िया' वाला भारत देश देने के और 'अच्छे दिन' लाने के जो वादे किये थे, उस सब से मंत्रमुग्ध होकर जनता ने आपको देश की संसद की बागडोर सौंप दी। लेकिन आप ने उसके बाद से देश को संघ की एक शाखा समझ लिया।


        प्रधानमंत्री जी, आप देश को 'अच्छे दिन' लाने का वादा करके सत्ता में आये थे।  ये वादा जनता ने माँगा नहीं था, आपने खुद ही ये सपना बुना था और जनता की आँखों के सामने एक मोहपाश की तरह से, एक चलचित्र की तरह से, इस सपने को अपनी भाषण कला में पिरोकर एक रोमांचक भविष्य देने का वादा किया था। इस सपने में कई दृश्य थे जैसे देश में बुलेट ट्रेन का आना, महंगाई में कमी लाना, किसानों को फसल की लागत मूल्य से 50% अधिक मुनाफा दिलाना, पूर्व सैनिकों को 'एक रैंक, एक पेंशन' देना, महिलाओं को सुरक्षा देना, और सबसे बढ़कर था काले धन को वापस लाना और भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाना चाहे वो आपकी ही पार्टी के क्यों न हों।


         प्रधानमंत्री जी, आपने इन सब कामों को करने के लिए समय सीमा भी खुद ही तय करी और कहा कि 'मुझे सिर्फ 60 महीने दे दो', जनता ने आपको दिल खोलकर 60 महीने दे दिए। आपने अपनी पार्टी के प्रचार में कहा कि 'आपका हर वोट सीधे सीधे मुझे मिलने वाला है' तो जनता ने आपके नाम पर अपराधी, बलात्कारी, चोर-उचक्के जिस जिस को भी आपकी पार्टी ने टिकट दिया, उसे जिता दिया। क्यों? क्यूंकि आपने वादा किया था कि आप 1 साल के अंदर-अंदर संसद को सभी दागियों से मुक्त करा दोगे और सबसे पहले अपनी पार्टी के ही लोगों पर आपका चाबुक चलेगा।


         प्रधानमंत्री जी, 1 साल पूरा हो गया।  आपने और आपकी सरकार ने जश्न भी मना लिया लेकिन संसद को दोष-मुक्त कराने का आपका वादा अभी तक पूरा नहीं हुआ। पुराने कर्मों को तो छोड़ भी दिया जाये, लेकिन आपके रहते हुए देश के कर-चोरी में लिप्त लोग आपके विदेश मंत्री से सीधे सीधे मदद पाते हैं और आप चुप रहते हैं? आपकी ही पार्टी की एक राज्य की मुख्यमंत्री उस कर-चोर के समर्थन में विदेशों में हस्ताक्षर कर आती हैं और आप चुप रहते हैं ? आपकी पार्टी के एक मुख्यमंत्री के राज में भ्रष्टाचार का खुलासा करने वालों की हत्या हो रही है और आप चुप रहते हैं? आपके मंत्रिमंडल में बलात्कार के दागी कैबिनेट मंत्री का दर्जा पाते हैं। आपके पूर्व रेल मंत्री के बेटे पर बलात्कार का आरोप लगता है और आप उस मंत्री को हटाने के बजाय कानून मंत्रालय में भेज देते हैं। यह तो कहीं से भी न्यायसंगत नहीं लगता।


             काला धन लाना तो बहुत दूर की बात है, देश की बागडोर सँभालने के बाद आपके मन की बात निकलकर बाहर आती है कि आपको पता ही नहीं है कि कितना काला धन देश के बाहर है? किसानों को उनकी फसल के मुआवजे में वृद्धि की आपने आस जगाई थी, उस पर आपकी सरकार ने विपरीत बयान दे दिया? चलिए कोई बात नहीं, इतने वर्षों से किसान सहते आ रहे थे, आपके राज के कुछ साल और सह लेते लेकिन आप तो उसके बाद उनकी जमीन हड़पकर व्यापारियों को देने के लिए इतने उतावले हो उठे कि जमीन अधिग्रहण के लिए अपार जन विरोध के बावजूद अध्यादेश पर अध्यादेश लाते रहे पूरे 1 साल तक? और अब जाकर आप थोड़े शांत हुए हैं। पता नहीं कि आपकी ये शांति कितने समय तक रह पायेगी क्यूंकि अगले साल के बाद आपके पास राज्यसभा में भी बहुमत होगा तब आप किस किस का विरोध देख पाएंगे और किसका नहीं, इस बारे में सोचने से ही मन शंकित हो जाता है।


               पूर्व सैनिक अभी तक आपके वादे के पूरे होने की आस में बैठे हैं, शंकित होने पर उन्होंने जंतर-मंतर पर धरना भी देना शुरू कर दिया लेकिन आज तक आप या आपके मंत्रिमंडल या आपकी पार्टी का कोई भी नुमाइंदा वहां पर पूर्व सैनिकों को दिलासा देने नहीं गया, क्यों? क्या देश की रक्षा के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाने वाले इन सैनिकों का इस देश पर इतना भी हक़ नहीं कि उनकी समस्या पर उनसे बात कर ली जाये?


                  बुलेट ट्रेन तो छोड़िये, आपने आते ही रेल भाड़े में वृद्धि कर डाली, वो भी साल में 2 बार। चलिए माना कि सारी कड़वी दवाई जनता को ही पीनी है, लेकिन आश्चर्यजनक ये था कि ये किराये आपने हमेशा संसद सत्र से अलग समय में बढ़ाये जिसका कि आप पूर्ववर्ती सरकार के समय खुद विरोध करते रहे थे।


                  प्रधानमंत्री जी! आपने जो वादे किये थे, उन्हें तो आपकी पार्टी के अध्यक्ष ने चुनावी जुमला बताकर हमारी सारी आशाएं समाप्त कर ही दीं। लेकिन इन वादों पर मुकरने के अलावा आपकी सरकार एक और खतरनाक मार्ग पर चल रही है जिसका मकसद है हर आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाना।


                    सबसे पहले आपकी सरकार ने देश में काम करने वाले कई गैर-सरकारी संस्थाओं पर प्रतिबन्ध लगाना शुरू किया। इसके पीछे तर्क दिया गया कि इन संस्थाओं ने वित्तीय अनियमितताएं की हैं या इनको विदेशों से चंदा मिलता है और इसलिए ये संस्थाएं सरकार के विरुद्ध मुहिम चलाती हैं। लेकिन इन पर प्रतिबन्ध लगाने के अलावा आपकी सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे इनकी वित्तीय अनियमितता का मुआवजा भी देश के खजाने में आता।  ऐसा भी कुछ नहीं किया गया कि विदेशी इशारों पर चलने वाली संस्थाओं के मालिकों को देशद्रोह के मामले में जेल भेजा गया हो। तो इस से तो आपकी नीयत पर ही शक होने लगता है। लगता है कि आप प्रतिबन्ध की राजनीति करके देश को सिर्फ एक ही सन्देश देना चाहते हैं कि या तो मेरे साथ चलो नहीं तो दंड भुगतने को तैयार रहो। ये तो इस देश की संस्कृति नहीं रही है।


                    आपकी सरकार ने कभी फिल्मों पर तो कभी किताबों पर और कभी पोर्न देखने पर प्रतिबन्ध लगाकर अपनी संकीर्ण मानसिकता का ही परिचय दिया है। नैतिक शिक्षा पढ़ानी है तो प्रतिबन्ध लगाकर मत पढ़ाइये। ऐसा करके आप देश के लोगों की मानसिकता को अपना गुलाम बनाने की कोशिश करते हुए दिखते हैं। साफ़ साफ़ लगता है कि अब आप खुद को देश का नेतृत्व करने में अक्षम महसूस करने लगे हैं और इसलिए अपनी किसी बात को मनवाने के लिए आपको ऐसे छद्म रास्तों का सहारा लेना पड़ रहा है। ये सब रास्ते तो तानाशाही के ही दिखते हैं।


                    प्रधानमंत्री जी, फिल्मों में जैसे कोई खलनायक जब नायक से अपनी पसंद का काम नहीं करवा पाता है तो वो नायक के परिवार को कैद करके नायक पर दबाव बनाने की कोशिश करता है लेकिन उसी समय वो दर्शक के क्रोध का भागी बन जाता है। समझिए आप इस बात को कि प्रतिबन्ध लगाने से देश नहीं चलने वाला है। कम से कम भारत देश तो नहीं चलेगा। आप संघ की शाखा में जाकर इन प्रतिबंधों पर वाहवाही लूट सकते हैं लेकिन ध्यान रखियेगा माननीय प्रधानमंत्री जी! आप देश चला रहे हैं, कोई आर एस एस की शाखा नहीं।