सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आखिरकार उच्च शिक्षण संस्थानों मे २७ प्रतिशत आरक्षण को स्वीकृति दे दी गयी। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नही है कि माननीय न्यायालय द्वारा कोई ग़लत निर्णय दिया गया है। न्यायपालिका का कार्य है यह देखना कि सरकार द्वारा जो कार्य किया गया है वह संविधान के दायरे मे किया गया है या नही। न्यायालय की मजबूरी इस निर्णय मे साफ झलकती है जिसमे कि उन्होंने सरकार से प्रार्थना करी है कि इस आरक्षण मे उच्च वर्ग को शामिल ना किया जाए।
वैसे भी देखा जाए तो इस सरकार की इच्छा आरक्षण को लागू करने की ही रही है ना कि उस वर्ग के लोगों को ऊपर उठाने की। वोट की राजनीति के लिए ये लोग चाहते हैं कि उस वर्ग का विकास न हो क्यूंकि एक बार जब वो लोग ऊपर उठ जायेंगे तो इन राजनेताओं पर आश्रित रहने की आवश्यकता नही रहेगी।
जहाँ तक मेरा मानना है, यदि आरक्षण देना ही था तो इसके लिए किसी जाति-विशेष या समुदाय-विशेष को ही चुनने की क्या आवश्यकता है? उत्थान की ही बात करनी है तो उस तबके की करिये जो कि वास्तव मे गरीब है, जिसके पास सुख-सुविधा नही है, जिसे सरकारी विद्यालय के अध्यापक के अतिरिक्त कोई ट्यूशन पढने के लिए पैसे नही हैं। कुल मिलाकर इस आरक्षण से अमीर और अमीर हो जायेगा, गरीब गरीब ही रहेगा.
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