Friday, June 10, 2016

सरकारों के विज्ञापनों की महत्ता और खर्चे का गुणा-भाग




आज कुछ सोशल मीडिया के पेज पर देखा कि दिल्ली सरकार के विज्ञापनों के खर्चे पर सवाल उठाये जा रहे हैं. तह में जाने पर पता चला कि दिल्ली सरकार ने पहली बार अपने बजट में विज्ञापनों पर खर्चे की सीमा 526 करोड़ तय करी थी किन्तु एक साल में 80 करोड़ से भी कम खर्च किया. इस खर्च में उन्होंने सभी तरह के विज्ञापन यानि कि प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, रेडियो एड आदि सब कुछ कर डाला और सिर्फ दिल्ली ही नहीं, दिल्ली के बाहर भी विज्ञापनों का खर्च इसी सीमा में कर डाला.

एक मित्र से चर्चा होने लगी. मित्र का विचार था कि दिल्ली के काम के प्रचार को दुसरे राज्य में क्यूँ किया जाए और आखिर इसमें दिल्ली के लोगों का पैसा क्यूँ खर्च किया जाए? अगर किसी सरकार को अपने सुशासन का प्रचार दुसरे राज्य में करना है तो पार्टी के पैसों से करो, जनता के टैक्स का पैसा क्यूँ इसमें खर्चा करना है?

सवालों में दम था, वैसे भी जिस जनता पर जमकर टैक्स पे टैक्स लादा जा रहा हो, उसके दिमाग में 'टैक्स का दुरूपयोग' शब्द कौंधते ही उसका बौखला जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. पिछले दो सालों में वैसे भी केंद्र द्वारा टैक्स बढ़ाये जा रहे हैं और हर बचत योजना पर ब्याज कम करने की कोशिश हो रही है. इसके बाद तो जनता का गुस्सा होना स्वाभाविक ही था. तो मैंने सोचा कि इस बारे में 'मेरे विचार' क्या हैं, ये आप सभी तक पहुंचा देता हूँ.

पहली बार किसी सरकार ने अपने सभी तरह के विज्ञापनों के खर्चे पर एक सीमा तय करी है. इससे पहले की सरकारें बिना किसी बजट के और हर तरह के विज्ञापन को अलग मानकर खर्च करती आई हैं, और ये खर्चा अनुमानतः सालाना 1000 करोड़ रुपये से ज्यादा का होता था. अब क्यूंकि ये पहली बार हो रहा था इसलिए दिल्ली सरकार ने इस बजट की सीमा अपने अनुमानित खर्चे से कुछ ज्यादा यानि कि 526 करोड़ रुपये रखी थी. पहले साल में इस तय सीमा से बहुत कम यानि कि 80 करोड़ रुपये से भी कम खर्चा हुआ, इसलिए दुसरे बजट में इस सीमा को और कम करने की योजना है.

दूसरा मुद्दा था कि दिल्ली के काम का प्रचार दुसरे राज्य में क्यूँ किया जाए? मेरा इस विषय में ये मानना है कि कोई भी सरकार अगर कुछ अच्छा काम करती है तो उसे इसका प्रचार करने का पूरा हक है. संविधान उसे यह अधिकार प्रदान करता है. दिल्ली सरकार ने जिस तरह से आते ही जनता को बिजली के बिलों में राहत दी है, जीवनदायी पानी को मुफ्त दिया है, और अपने राज्य को प्रदुषण से मुक्त करने के लिए ओड-इवन  जैसी क्रांतिकारी योजनाओं को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है, उसे इन कामों का प्रचार करना ही चाहिए. इसके अलावा दिल्ली सरकार की मोहल्ला क्लिनिक जैसी योजनाओं के चर्चे तो विदेशी अखबारों में भी हो रहे हैं तो इसका प्रचार अपने ही देश में करने में क्या बुराई है?

हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो शपथ लेते ही दूसरे देशों के भ्रमण पर निकल गए थे. वहां पर उन्होंने बड़े बड़े रंगारंग कार्यक्रमों में अपनी और अपनी सरकार की तारीफों के पुल बाँध दिए. तब किसी ने उस विज्ञापन का खर्चा नहीं पूछा. तब किसी ने दूसरे देश में अपने देश के प्रचार का औचित्य नहीं पूछा. पहले भी सभी सरकारें अपना प्रचार दुसरे प्रदेशों के अखबारों में करती आई हैं, पहले कभी ये सवाल नहीं उठा तो आखिर अभी अचानक से सिर्फ आम आदमी पार्टी की सरकार के प्रचार पर ही सबको क्यूँ आपत्ति हो रही है? इसका सीधा सा उत्तर है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर वास्तविक लड़ाई कोई लड़ रहा है तो वो है सिर्फ आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार. और यही कारण है कि सभी लोग इस सरकार के काम-काज के प्रचार प्रसार को देश की बाकी जनता तक नहीं पहुँचने देना चाहते हैं. और यही कारण है कि मेरा मानना है कि दिल्ली सरकार अगर अपने यहाँ पर कुछ नए नए प्रयोग करती है और उन प्रयोगों में सफल रहती है तो उसे इसका प्रचार दूसरे प्रदेशों में भी करना ही चाहिए. जब दूसरे प्रदेशों के लोग दिल्ली में हो रहे विकास कार्यों को देखेंगे तो उनके अन्दर भी अपने प्रदेश में वैसे ही या उससे भी बेहतरीन विकास कार्यों के प्रति ललक उठेगी और वो लोग भी अपने प्रदेश की सरकार से अच्छा काम करने की अपेक्षा करेंगे और उस पर दबाव बनायेंगे.

एक और बात कि दूसरे प्रदेशों में दिल्ली के अच्छे कार्यों का प्रचार होने से दिल्ली की छवि और अच्छी होगी. निवेशक यहाँ पर निवेश के लिए लालायित होंगे और रोजगार के अवसर और बढ़ेंगे. दिल्ली के लोग जब दुसरे राज्य में जायेंगे तो वहां के लोगों के बीच में उनकी अच्छी छवि होगी.

दूसरा प्रश्न था कि दिल्ली के लोगों के टैक्स के पैसे से खर्च क्यूँ करना है, पार्टी के पैसों को खर्च क्यूँ नहीं करते इस काम में? इस प्रश्न पर थोड़ी देर के लिए मेरे दिमाग में भी सन्नाटा गूँज गया था. फिर मैंने सोचा कि पार्टी के पास पैसा कहाँ से आएगा? जनता से. और जनता तो काम देखकर या सुनकर ही आपको चंदा देगी. आम आदमी पार्टी तो वैसे भी जनता से ही चंदा लेती है अमीर व्यावसायिक घराने तो पार्टी को चंदा देते नहीं हैं, क्यूँकि ये पार्टी सिर्फ जनता के हित के ही काम करती है. इसलिए जिस जनता को आपका काम सुनाई या दिखाई नहीं देगा, वो जनता आपको चंदा क्यूँ देगी? तो दुसरे प्रदेशों की जनता से चंदा मिलना थोडा मुश्किल है. हाँ, दिल्ली की जनता जरुर ख़ुशी ख़ुशी इनको चंदा देगी, लेकिन तब भी तो यही सवाल खड़ा हो जायेगा न कि दिल्ली की जनता के चंदे को पार्टी दुसरे प्रदेश में क्यूँ खर्च कर रही है? एक पक्ष इस मुद्दे पर ये भी है कि अगर किसी प्रदेश में गठबंधन की सरकार हो तो उस सरकार के कामकाज के प्रचार प्रसार का जिम्मा कौन सी पार्टी उठाएगी? इसलिए मेरे हिसाब से ये प्रश्न ही बेमानी है.

इस पूरे मुद्दे पर सोचने वाली बात ये है कि आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने जिस तरह से जनता की सुख सुविधाओं में अभूतपूर्व वृद्धि करने के बावजूद जनता का पैसा बचाया है और कई नए निर्माण कार्यों को पहले के मुकाबले में बहुत कम कीमत में तैयार किया है, उससे दिल्ली की जनता बहुत खुश है और यह सबसे बड़ा कारण है कि दिल्ली के टैक्स के पैसों पर होने वाले प्रचार का विरोध दिल्ली की जनता नहीं कर रही है बल्कि वो लोग कर रहे हैं, जिन्हें इस तरह की राजनीति के अपने प्रदेशों में आने का डर लग रहा है. उन्हें लग रहा है कि दिल्ली से शुरू हुई ये राजनीति अगर उनके यहाँ भी पहुँच गयी तो उनके भ्रष्टाचारी तौर तरीकों पर ग्रहण लग सकता है.

कुल मिलाकर इस मुद्दे पर मेरा विचार है कि किसी भी प्रदेश की सरकार को अपने अच्छे कार्यों की सफलता का उल्लेख करने की आज़ादी होनी चाहिए और अच्छे कामो का प्रचार प्रसार समाज को अच्छा ही बनाएगा.

टिप्पणी: चित्र में दिखाया गया विज्ञापन उस समय का है जब एंटी करप्शन ब्यूरो दिल्ली सरकार के अधीन थी, बाद में लगभग  चार महीने बाद ही केंद्र सरकार द्वारा एंटी करप्शन ब्यूरो को अपने अधीन कर लिया गया और उसके बाद से वहां किसी भी मामले का निपटान नहीं किया गया है. 

Wednesday, June 1, 2016

सेस की महिमा और देश में बढ़ते सेवा कर के पीछे का सच

आज यानि कि 1 जून, 2016 का दिन काफी गहमागहमी में चल रहा है. हर कोई सेस के बारे में बात कर रहा है. कारण है कि आज की तारीख से सभी प्रकार की सेवाओं पर पहले से चलते आ रहे सेवा कर में एक अतिरिक्त कर यानि कि टैक्स जोड़ दिया गया है. इस नए तरह के अधिभार को नाम दिया गया है 'कृषि कल्याण सेस'. 

कृषि कल्याण सेस - नाम सुनने से ही मन पावन पावन हो गया. बस ऐसा लग रहा है कि अभी जब मैं अपने मोबाइल का बढ़ा हुआ बिल जमा करूँगा तो उससे किसानों की आत्महत्या रुक जाएगी. ठीक वैसे ही जैसे लगभग छह महीने पहले इसी सरकार द्वारा लगाये हुए 'स्वच्छ भारत सेस' से मेरा देश पूरा स्वच्छ हो गया (मजाक है, क्यूंकि सब मजाक बन कर रह गया है). 

आखिर क्या कारण है कि स्वच्छ भारत सेस लगाने के समय पर जो लोग चुप रहे, वो भी अब अपनी आवाज मुखर करने लगे हैं? क्यूँ लोग किसानों का भला होने का अंदाजा देने वाले इस अधिभार पर विरोध के स्वर प्रकट कर रहे हैं?

इसका कारण है वर्तमान सरकार द्वारा देश को दिए गए भाषणों में सरकारी प्रगति की ऊंची ऊंची कहानियां सुनाना और उसके बावजूद भी बढती महंगाई से कोई राहत न दिलाते हुए रोज नए नए टैक्स बढ़ाना. 'स्वच्छ भारत सेस' के नाम से बटोरे गए धन का क्या उपयोग हुआ है, कहाँ गया ये पैसा, इन सवालों के जवाब जनता ढूंढ तो रही है लेकिन लगता है कि ये जवाब सर्फ एक्सेल से धुलकर गायब हो गए हैं. ढूंढते रह जाओगे वाला डायलॉग रह रह कर मन को कचोट जाता है.

देश में पिछले दो सालों में किसानों की हुई बदहाली और उनकी बढती आत्महत्याओं पर जब सरकार को घेरा जाने लगा है तो सरकार ने इसमें भी अपनी कमाई का जरिया निकाल लिया. अब कोई इस नए अधिभार का विरोध करे तो उसे किसान विरोधी घोषित कर दिया जायेगा. चित्त भी मेरी और पट भी मेरी. वाह जी वाह.

चलिए अब ये नया अधिभार लगाया है तो इसके पीछे कोई योजना तो होनी चाहिए थी किसानों की समृद्धि के लिए. फिर भी, अगर केंद्र सरकार अगले महीने से किसानों की होने वाली आत्महत्याओं पर रोक लगवा सके तो समझा जा सकता है कि हमारे पैसे से कुछ अच्छा काम हो गया. मुश्किल सिर्फ यही है कि इस सरकार ने पिछले 'स्वच्छ भारत सेस' से जनता को कोई भी ऐसा भरोसा दिलाया नहीं है. 

सेस के बारे में सोचते सोचते मुझे ये प्रश्न मन में कौंधा कि आखिर क्या कारण है कि भाजपा की वर्तमान सरकार को बार बार जनता पर नए नए टैक्स लगाने पर मजबूर होना पड़ रहा है? जब इस सरकार से सवाल पूछे जाते हैं तो आंकड़ों को इधर का उधर करके ये बता देते हैं कि देश की जीडीपी में अंधाधुंध वृद्धि हो गयी है. वो आंकड़े सुनते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है. लेकिन जैसे ही वास्तविकता में अपने महीने का बढ़ा हुआ बजट और घटती हुई कमाई पर नज़र पड़ती है तो सारी ख़ुशी तुरंत उड़न-छू हो जाती है. दो साल पहले जब ये सरकार सत्ता में आई थी उस समय सेवा कर 12.5% था और आज की तारीख में ये बढ़कर 15% हो गया है. अगर इस देश की जीडीपी पिछले दो साल में इतनी ही तेजी से आगे बढ़ रही है तो फिर जनता पर 2.5% का अतिरिक्त टैक्स क्यूँ?

तब मुझे समझ में आया कि असल में इस सरकार के कार्यकाल में लोगों की कमाई घट गयी है, व्यापार में कमी आ रही है, और वास्तव में जीडीपी में कमी आ रही है, जिस वजह से सरकार को अपने कार्यकलापों को जारी रखने के लिए जरुरी धन की आपूर्ति इस तरह के अतिरिक्त टैक्स लगाकर करी जा रही है. सीधा सा गणित है कि अगर लोगों की कमाई बढ़ी होती तो अपने आप ही सरकार के पास उतने ही टैक्स में ज्यादा धन जमा होता लेकिन लोगों की कमाई कम होने के कारण ही सरकार को अपने खर्चों के लिए लोगों पर अतिरिक्त टैक्स का बोझ डालने पर मजबूर होना पड़ रहा है. 

देश के प्रधानमंत्री होने के नाते, मोदी जी का ये कर्तव्य है कि टैक्स देने वाली जनता पर इतना अधिक कर-भार डालने के बाद उन्हें अपने कामों में जल्दी ही परिणाम दिखाने चाहिए जो पिछले दो सालों में नदारद हैं. वर्ना तो जनता जनार्दन अगले चुनावों में आपको आपका रिजल्ट थमा ही देगी. 

Saturday, May 28, 2016

समीक्षा: मोदी सरकार के दो साल एक आम आदमी की नजर से

केंद्र सरकार अपने 2 साल पूरे होने का ढोल तो पीट रही है लेकिन जनता की कोई भी भागीदारी इस पूरे कार्यक्रम में कहीं नहीं दिख रही. कारण साफ़ है कि जनता इस तरह के कार्यक्रम में भागीदारी तभी करती है जब उसे सरकार से सीधे तौर पर किसी तरह का कोई फायदा हुआ हो.
सरकार नगाड़े बजाकर कह रही है कि उसने रोजगार दे दिया लेकिन जब उन्ही का नेता सुब्रह्मनियन स्वामी आरबीआई गवर्नर को हटाने के लिए कहता है कि देश में रोजगार नहीं है, कंपनियां घाटे में जा रही हैं तो कोई भी सरकार का मंत्री उठकर ये नहीं कहता कि ये आदमी झूठ बोल रहा है क्यूंकि उसे झूठा साबित करने के लिए उन्हें आंकड़े दिखाने पड़ेंगे.
आज अखबार में पढ़ा कि केनरा बैंक को कुछ हज़ार करोड़ का घाटा हुआ है, कुछ दिन पहले पंजाब नेशनल बैंक ने भी ऐसा ही घाटा प्रकाशित किया था. सरकार ना तो ललित मोदी का कुछ बिगाड़ पाई ना विजय माल्या का.
टीवी पर देखा कि छाती पीट पीट कर मोदी जी कह रहे थे कि 2 साल में उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लग पाया.
अरे मोदी जी! आरोप लगाने के लिए जांच करने वाली सभी संस्थाओं पर तो आप ताला लगाकर बैठे हो. आरटीआई का क्या हाल हो गया है आपके राज में, किसी से छुपा है क्या? आरटीआई के जवाब देने के बजाय बीजेपी प्रेस कांफ्रेंस कर देती है पर आरटीआई का जवाब नहीं देती.
केंद्र का लोकपाल बिल पास हुए 2 साल से ऊपर हो गए लेकिन आज तक आपने उस पर किसी लोकपाल की नियुक्ति नहीं होने दी. दिल्ली सरकार ने अपना लोकपाल बिल राज्य से पास कर के केंद्र के पास 1 साल पहले भेज दिया, आप लोग उस के ऊपर भी पालती मारकर बैठ गए. दिल्ली सरकार से ACB भी छीन रखी है. मतलब न तो खुद भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ कर रहे हो न दूसरों को करने दे रहे हो.
वैसे भी आपकी सरकार ने कुछ काम किया हो तो ही लोग उसमे भ्रष्टाचार ढूंढ पाएंगे. काम के नाम पर आपने लोगों के 'जन-धन खाते' खुलवा दिए और बदले में गैस पे सब्सिडी धीरे धीरे ख़त्म कर दी, स्वच्छता के नारे दे दिए और बदले में स्वच्छ भारत टैक्स लगा दिया, किसानों की जमीन छीनने के लिए अधिग्रहण का अध्यादेश पे अध्यादेश लागू किया और जब जनता के भारी विरोध के कारण उसे वापस लेना पड़ा तो बदला लेने के लिए अब किसान के नाम से भी नया टैक्स चालू कर दिया.
दुनिया में कच्चे तेल की कीमतें आधे से भी कम हो गयीं पर आपने टैक्स पे टैक्स लगाकर पेट्रोल, डीजल के दाम दुगने कर दिए. आप महंगाई कम करने का नारा देकर सरकार में आये थे लेकिन आपके कार्यकाल में खाने पीने की वस्तुओं के दाम दुगुने से भी अधिक हो गए फिर भी कभी ऐसा सुनाई भी नहीं दिया कि आपने बढती हुई महंगाई से चिंतित होकर वित्त मंत्री से वार्तालाप किया हो.
काले धन का शोर चुनाव से पहले तक हमारे कान के परदे फाड़ता था लेकिन सत्ता में पहुँचने के बाद से आपने काला धन शब्द का जिक्र करना ही बेमानी समझ लिया. एक बार अपने 'मन की बात' कार्यक्रम में जरुर आपने इसका जिक्र किया लेकिन ये कहकर कि सरकार को पता ही नहीं है कि किसका और कितना काला धन विदेशों में जमा है. इससे पहले आप चुनावों में दुन्दुभी बजाकर कहते थे कि कुछ लोगों ने इतना काला धन विदेशों में जमा किया हुआ है कि उसको जब आप वापस लायेंगे तो हिंदुस्तान के एक-एक व्यक्ति को 15-15 लाख मिल जायेगा. चुनाव जीतने के बाद आप तो चुप्पी साध गए और आपके राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इसे एक जुमला घोषित कर दिया.
चलिए चुनावी जुमलों को छोड़ दिया जाये तो भी आपके घोषणापत्र की तो अहमियत कम नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन लगता है कि सत्ता लोलुपता में आपने और आपकी सरकार ने अपने ही घोषणापत्र को हाशिये पर धकेल दिया. न तो किसानों को उनकी फसल का उचित और लाभकारी मूल्य दिलवाने के लिए आपने कोई पहल करी बल्कि सर्वोच्च न्यायालय में ये कह कर कि सरकार ऐसी कोई योजना नहीं लाना चाहती है, आपने अपनी मंशा भी प्रकट कर दी.
विदेश नीति पर आते हैं तो मोदी जी ने आते ही धुआंधार विदेश यात्रायें करके और विदेशों में रंगारंग कार्यक्रमों के बीच भाषणबाजी करके सबको सम्मोहित तो कर दिया लेकिन अपने ही पडोसी देशों से धीरे धीरे सम्बन्ध खराब कर लिए.
चीन के राष्ट्रपति के साथ झूले पर बैठ कर पींगे बढाते रहे लेकिन चीन उसके बाद भी सीमा पर हमें आँखें तरेरता रहता है.
अचानक से बिना बुलावे के पाकिस्तान जाकर नवाज शरीफ के जन्मदिन का केक खा आये बिना अपने देश को सूचित किये, और इसके बावजूद भी पाकिस्तान से जारी हमलों पर चुप्पी साध ली. पठानकोट पर हमला हुआ, ये हमला पाकिस्तान ने करा था, इसके बावजूद आपने पाकिस्तान की ही जांच एजेंसी को बुलाकर अपनी बेइज्जती करवाई. उन्होंने उल्टा हमारे ही देश पर खुद पर ही छद्म हमला कराने का घिनौना आरोप लगा दिया और आप चुप रहे. ये कैसी राष्ट्रभक्ति है? एक समय हमारा मित्र देश कहलाने वाला छोटा सा पडोसी देश नेपाल आज बात बात पर हमको घुड़की दे रहा है और चीन के साथ व्यापारिक समझौते कर रहा है, ये आखिरकार किसका नुकसान है? हमारे देश का ही तो.
रक्षा मामलों में देखें तो आपने फ़्रांस की पहली यात्रा में ही राफेल फाइटर जहाजों की खरीद के लिए समझौते कर दिए और इसे बहु-प्रचारित भी कर दिया. तब से एक साल से ऊपर बीत गया है. न तो जहाज आये न जहाजों के पुर्जे. सुनने में आया है कि ऐसे महंगे जहाज खरीदने से पहले आपने रक्षा विशेषज्ञों से बातचीत करना भी मुनासिब नहीं समझा था, और अब रक्षा मंत्री इन जहाजो की कीमत दोगुनी महंगी बताकर इसे कम करवाने का प्रयास कर रहे हैं.
कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो इन दो सालों में मोदी सरकार ने कोई भी सराहनीय कार्य नहीं किया है. और जैसा कि खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने स्वीकार किया है कि पहले दो साल में नींव रखी गयी है और विकास के काम अब शुरू होंगे, तो मेरे हिसाब से अभी से 'विकास पर्व' मनाने का कोई औचित्य नहीं है.
पहले विकास कीजिये, उसके बाद 'विकास पर्व' मनाइए. तब जनता भी आपका साथ देगी.