फिल्म शोले आपने जरुर देखी होगी। उसमे हीरो के पास एक अनोखा सिक्का था, जिसे उछाल कर वो अपनी और अपने साथ वालों की किस्मत तय किया करता था। इस सिक्के का अनोखापन ये था कि सिर्फ हीरो इस बात को जानता था कि सिक्का दोनों तरफ से एक जैसा ही है। इसलिए वो जैसा चाहता था, वही होता था।
जब से राजनीति समझनी शुरू करी थी, तब से देखता आया हूँ कि देश की संसद में पक्ष और विपक्ष कई मुद्दों पर आपस में लड़ते भिड़ते रहते हैं। फिर 5 साल के लम्बे इंतज़ार के बाद नए चुनाव होते देखा और पक्ष को विपक्ष में और विपक्ष को पक्ष में बदलते देखा। सोचा कि चलो अब जिस मुद्दे पर विपक्ष में बैठे लोग तन मन धन से लड़ रहे थे, अब वो मुद्दा उनके सत्ता में आने पर पर मूर्तरूप पायेगा। पर "ढिच्क्याऊँ" की एक आवाज के साथ गाना बजना शुरू होता है - 'गोली मार भेजे में'। ये क्या हुआ, कल तक विपक्ष में रहने वाली पार्टी जिस मुद्दे पर जी जान लगा रही थी, आज संसद के गलियारे में उस तरफ बैठते ही पलट गयी? ये क्या हुआ? कैसे हुआ? और हाँ, कल का सत्तापक्ष आज विपक्ष बनते ही उसी तरह का हंगामा करने लगा जिसके लिए वो कल तक पूर्व विपक्ष को कोसता रहता था।
खैर! धीरे धीरे समझ में आने लगा कि ये सब परंपरागत राजनीतिक पार्टियां कुछ और नहीं है, सिर्फ चन्द बड़े छद्म व्यापारियों के हाथ का खिलौना मात्र हैं। जनता को धोके में रखने के लिए विपक्ष में बैठी पार्टी किसी मुद्दे पर हंगामा जरूर करती है, लेकिन सत्ता मिलते ही वो अपने आराध्य छद्म व्यापारी के हाथ का खिलौना मात्र रह जाते हैं और फिर 'हुइए वही जो अम्बानी* रचि राखा'।
आज भी देश की संसद उसी ढर्रे पर चल रही है। सत्ता-पक्ष के मंत्रीगण करचोरी के मामले में भगोड़े का साथ दे रहे हैं, बलात्कारी लोग मंत्री बन रहे हैं और विपक्ष इन्ही मुद्दों पर संसद में हंगामा कर रहा है। इस्तीफे की मांग पर संसद आज भी ठप्प है। कल तक जो विपक्ष में रहते हुए हर दूसरे दिन प्रेस कांफ्रेंस कर के मंत्रियों का इस्तीफ़ा माँगा करते थे, आज वो खुद मंत्री बने हुए हैं और विपक्ष की मांग पर प्रेस कांफ्रेंस करके बता रहे हैं कि इस्तीफ़ा नहीं देंगे।
तो भाई! सीधी सी बात तो ये समझ में आई है कि वर्षों से जो पार्टियां एक बार सत्ता पक्ष के इस ओर दिखती हैं और दूसरी बार उस ओर, जब तक ये दोनों ही तरह की पार्टियां संसद से बाहर नहीं कर दी जातीं इनका ये खेल यूँ ही चलता रहेगा। ये हर बार जनता के सामने चुनावी सिक्का फेंकते रहेंगे लेकिन हकीकत में इस सिक्के के दोनों पहलु एक समान ही रहेंगे।
जरुरत है, तो सिक्का बदलने की।
*यहाँ अम्बानी एक प्रतीक मात्र हैं (ऐसे मिलते जुलते नाम वाले और भी हैं)।
जब से राजनीति समझनी शुरू करी थी, तब से देखता आया हूँ कि देश की संसद में पक्ष और विपक्ष कई मुद्दों पर आपस में लड़ते भिड़ते रहते हैं। फिर 5 साल के लम्बे इंतज़ार के बाद नए चुनाव होते देखा और पक्ष को विपक्ष में और विपक्ष को पक्ष में बदलते देखा। सोचा कि चलो अब जिस मुद्दे पर विपक्ष में बैठे लोग तन मन धन से लड़ रहे थे, अब वो मुद्दा उनके सत्ता में आने पर पर मूर्तरूप पायेगा। पर "ढिच्क्याऊँ" की एक आवाज के साथ गाना बजना शुरू होता है - 'गोली मार भेजे में'। ये क्या हुआ, कल तक विपक्ष में रहने वाली पार्टी जिस मुद्दे पर जी जान लगा रही थी, आज संसद के गलियारे में उस तरफ बैठते ही पलट गयी? ये क्या हुआ? कैसे हुआ? और हाँ, कल का सत्तापक्ष आज विपक्ष बनते ही उसी तरह का हंगामा करने लगा जिसके लिए वो कल तक पूर्व विपक्ष को कोसता रहता था।
खैर! धीरे धीरे समझ में आने लगा कि ये सब परंपरागत राजनीतिक पार्टियां कुछ और नहीं है, सिर्फ चन्द बड़े छद्म व्यापारियों के हाथ का खिलौना मात्र हैं। जनता को धोके में रखने के लिए विपक्ष में बैठी पार्टी किसी मुद्दे पर हंगामा जरूर करती है, लेकिन सत्ता मिलते ही वो अपने आराध्य छद्म व्यापारी के हाथ का खिलौना मात्र रह जाते हैं और फिर 'हुइए वही जो अम्बानी* रचि राखा'।
आज भी देश की संसद उसी ढर्रे पर चल रही है। सत्ता-पक्ष के मंत्रीगण करचोरी के मामले में भगोड़े का साथ दे रहे हैं, बलात्कारी लोग मंत्री बन रहे हैं और विपक्ष इन्ही मुद्दों पर संसद में हंगामा कर रहा है। इस्तीफे की मांग पर संसद आज भी ठप्प है। कल तक जो विपक्ष में रहते हुए हर दूसरे दिन प्रेस कांफ्रेंस कर के मंत्रियों का इस्तीफ़ा माँगा करते थे, आज वो खुद मंत्री बने हुए हैं और विपक्ष की मांग पर प्रेस कांफ्रेंस करके बता रहे हैं कि इस्तीफ़ा नहीं देंगे।
तो भाई! सीधी सी बात तो ये समझ में आई है कि वर्षों से जो पार्टियां एक बार सत्ता पक्ष के इस ओर दिखती हैं और दूसरी बार उस ओर, जब तक ये दोनों ही तरह की पार्टियां संसद से बाहर नहीं कर दी जातीं इनका ये खेल यूँ ही चलता रहेगा। ये हर बार जनता के सामने चुनावी सिक्का फेंकते रहेंगे लेकिन हकीकत में इस सिक्के के दोनों पहलु एक समान ही रहेंगे।
जरुरत है, तो सिक्का बदलने की।
*यहाँ अम्बानी एक प्रतीक मात्र हैं (ऐसे मिलते जुलते नाम वाले और भी हैं)।